मुझे तुम अब वैसी नहीं लगती ,
जैसी पहले लगा करती थी ,
आवाज़ भारी, बातें गहरी हो गई है
चेहरे की रौनक , लिबासों में खो गई है
सुना है ,
२-४ सफ़ेद बालों ने भी ,
सर पर तुम्हारे ,घेरा कर दिया है ,
ज़िन्दगी की झुंझलाहट नें तुम्हारे आस पास ,
बस उमीदों का पहरा जड़ दिया है
बीच रात उठ , कुछ सोचने लगती हो अब अक्सर ,
सुख भरी नींद ने भी तुमसे किनारा कर लिया है
अब बातों पे तुम्हारी हसीं तो आती है
मगर भीतर एक दर्द भी होता है
एक वक़्त जो हुआ करता है
अब वो सुकून ना हमें भिगोता है ,
एक ज़माने में पागल था मैं तुम पर ,
वो ज़माने की याद अब अच्छी नहीं लगती ,
जैसी पहले लगा करती थी,
तुम अब मुझे वैसी नहीं लगती
तुम बल्कि अब मेरी हर शाम का एक जाम हो ,
उस पुरानी शराब का ,
जो सदियों से ज़मीन तले दबी थी ,
और अब हर एक जाम में ,
सदियों का नशा देती है।
रमता जोगी ।